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ति॒ग्मं चि॒देम॒ महि॒ वर्पो॑ अस्य॒ भस॒दश्वो॒ न य॑मसा॒न आ॒सा। वि॒जेह॑मानः पर॒शुर्न जि॒ह्वां द्र॒विर्न द्रा॑वयति॒ दारु॒ धक्ष॑त् ॥४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tigmaṁ cid ema mahi varpo asya bhasad aśvo na yamasāna āsā | vijehamānaḥ paraśur na jihvāṁ dravir na drāvayati dāru dhakṣat ||

पद पाठ

ति॒ग्मम्। चि॒त्। एम॑। महि॑। वर्पः॑। अ॒स्य॒। भस॑त्। अश्वः॑। न। य॒म॒सा॒न। आ॒सा। वि॒ऽजेह॑मानः। प॒र॒शुः। न। जि॒ह्वाम्। द्र॒विः। न। द्र॒व॒य॒ति॒। दारु॑। धक्ष॑त् ॥४॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:3» मन्त्र:4 | अष्टक:4» अध्याय:5» वर्ग:3» मन्त्र:4 | मण्डल:6» अनुवाक:1» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर विद्वानों को कैसा वर्त्ताव करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जिस (अस्य) इस विद्वान् के (तिग्मम्) तीव्र (महि) बड़े (वर्पः) रूपका (यमसानः) नियम करता और (विजेहमानः) शब्द करता हुआ (अश्वः) शीघ्र चलनेवाला घोड़ा (न) जैसे वैसे (आसा) मुख से (भसत्) प्रकाशित करता है और (परशुः) कुठार (न) जैसे वैसे (जिह्वाम्) वाणी को (द्रविः) द्रवी होकर उच्चारण की क्रिया (न) जैसे वैसे (द्रावयति) गीला करता है और (दारु) काष्ठ को (धक्षत्) जलावे उसको (चित्) निश्चय से हम लोग (एम) प्राप्त होवें ॥४॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे विद्वन् ! जैसे उत्तम प्रकार से शिक्षित घोड़ा मनुष्य को मार्ग में पहुँचाता है, वैसे धर्ममार्ग को हम लोगों को पहुँचाइये और जैसे बढ़ई परशुसे काष्ठ को काटता है, वैसे हम लोगों के दोषों को काटिये और जैसे तालु से उत्पन्न आर्द्ररस जिह्वा को प्राप्त होता है, वैसे विद्या के रस को प्राप्त कराइये तथा जैसे अग्नि काष्ठों को जलाता है, वैसे ही हमारे दुर्व्यसनों को जलाइये ॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्विद्वद्भिः कथं वर्त्तितव्यमित्याह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यस्यास्य तिग्मं महि वर्पो यमसानो विजेहमानोऽश्वो नाऽऽसा भसत् परशुर्न जिह्वां द्रविर्न द्रावयति दारु धक्षत् तं चिद्वयमेम ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (तिग्मम्) तीव्रम् (चित्) अपि (एम) प्राप्नुयाम (महि) महत् (वर्पः) रूपम् (अस्य) विदुषः (भसत्) भासयति (अश्वः) आशुगन्ता तुरङ्गः (न) इव (यमसानः) नियन्ता सन् (आसा) आस्येन। (विजेहमानः) शब्दायमानः (परशुः) कुठारः (न) इव (जिह्वाम्) वाणीम् (द्रविः) द्रवीभूत्वोच्चारणक्रिया (न) इव (द्रावयति) (दारु) काष्ठम् (धक्षत्) ॥४॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः । हे विद्वन् ! यथा सुशिक्षितोऽश्वो जनं मार्गं नयति तथा धर्म्मपथमस्मान्नय। यथा तक्षा परशुना काष्ठं छिनत्ति तथास्माकं दोषाञ्छिन्धि यथा तालुज आर्द्रो रसो जिह्वां प्राप्नोति तथा विद्यारसं प्रापय। यथाग्निः काष्ठानि दहति तथैवास्माकं दुर्व्यसनानि दह ॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे विद्वाना! उत्तम प्रकारे प्रशिक्षित घोडा माणसाला मार्गक्रमण करीत घेऊन जातो तसे तू आम्हाला धर्ममार्गाने घेऊन जा. जसा सुतार कुऱ्हाडीने लाकूड कापतो तसे आमचे दोष नाहीसे कर. जसा टाळूपासून उत्पन्न झालेला आर्द्र रस जिभेला मिळतो तसा विद्येचा रस प्राप्त कर व जसा अग्नी लाकडाला जाळतो तसे आमच्या दुर्व्यसनाचे दहन कर. ॥ ४ ॥